Nisha

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सैर तीसरे दरवेश की

                                                               

                                                              सैर तीसरे दरवेश की 

 

 

 


तीसरा दरवेश कोट बांध बैठा  और अपनी सैर का बयां इस तरह करने लगा।

की यह कामतरीन ,बादशाह ज़ादा अज्म का है। मेरे वली नेअमत वहा के बादशाह थे। और सिवाए मेरे कोई फ़रज़न्द  न  रखते थे। मैं जवानी के आलम में मुसाहिबों के साथ शतरंज ,तख्ता नर धकेला करता। या सवार हो कर सैर व  शिकार में मशग़ूल रहता।  एक दिन का यह माजरा है  की सवारी तैयार करवा कर और सब यार आश नाओ को लेकर मैदान की तरफ निकला। बाज़ ,बहरी ,बाशा ,सुर्खाब और तीतरो पर उड़ाता हुआ दूर निकल गया। अजब तरह का यह क़तअ बहार का नज़र आया की जिधर निगाह जाती थी ,कोसो तिलक सब्ज़ और फूलो से लाल ज़मीन नज़र  आती थी। यह समां देख कर ,घोड़ो के बांगे दाल दिया। और क़दम क़दम सैर करते हुए चले जाते थे। नगाह उस सेहरा में देखा  की एक काला हिरण ,उसपर ज़र्बफ्त की झोल और भंवर कली की ,और घुंघरू सोने की ज़रदोज़ी पट्टे में  टिके हुए गले में पड़े हुए ,खातिर जमा से उस मैदान में की जहा इंसान का दखल नहीं परिंदा पर नहीं मारता  ,चरता  फिरता है। हमारे घोड़े की सुम की आहट पाकर चौकन्ना हुआ ,और सर उठा कर देखा और आहिस्ता  आहिस्ता चला।

मुझे  उसके देखने से यह शौक हुआ की रफ़ीक़ो से कहा की तुम  यही खड़े रहो ,मैं उसे जीता पकडूँगा। खबरदार तुम ,आगे क़दम न बढ़ाना और मेरे पीछे मत आना। और घोड़ा मेरी राणो तले ऐसा परंद था की बारहा हिरणो के ऊपर दौड़ा कर उन कर छालो को भुला कर ,हाथो से पकड़ पकड़ लिए थे। उसके पास दौड़ाया ,वह देख कर छलांगे  भरने लगा और हवा हुआ। घोडा भी बाद से बाते करता था ,लेकिन उसकी गर्द को न पंहुचा। वह भी पसीना  पसीना हो गया ,और मेरी भी जीभ मारे प्यास के चटखने लगी ,पर कुछ बस न चला। शाम होने लगी और मैं  क्या जानू कहा से कहा निकल आया ? लाचार होकर उसे  भुलवा दिया। और तीर निकाल कर ,और क़ुर्बान से कमान  संभाल कर चिल्ले में जोड़ कर ,कीशह कान तलक लाकर ,राण को उसकी ताक ,अल्लाह हु अकबर कह कर मारा।  बारे ,पहला ही तीर उसके पाव पर तराज़ू हुआ ,तब लंगड़ाता हुआ पहाड़ के दामन के सिम्त चला। फ़क़ीर भी  घोड़े पर से उतर पड़ा और पा पियादा उसके पीछे लगा। उसने कोह का इरादा किया मैंने भी उसका साथ दिया  .कई उतार चढ़ाओ के बाद एक गुंबद नज़र आया। जब पास पंहुचा ,एक बगीचा और एक चश्मा देखा। वह हिरण तो  नज़रो से ओझल हो गया। मैं निहायत थका था ,हाथ पाव धोने लगा।

 

          एक बारगी आवाज़ रोने की उस बिरिज के अंदर  से मेरे कानो में आयी ,जैसे कोई कहता है की अये बच्चे !जिसने तुझे तीर मारा ,मेरी आह का तीर उसके कलेजे में लग जाये। वह अपनी जवानी से फल न पाए ,और खुदा उसको मेरा सा दुखिया बना दे ! मैं यह सुन कर वहा गया। देखा तो एक बुज़ुर्ग रेष सफ़ेद ,अच्छी पोशाक पहने एक मसनद पर  बैठा है ,और हिरण आगे लेटा है ,उसकी जांघ से तीर खींचता है और बद्दुआ देता है। मैंने सलाम किया और हाथ  जोड़ कर कहा की हज़रात सलामत ! यह तक़सीर न दांस्ता इस गुलाम से हुई ,मैं यह न जानता था ,खुदा के वास्ते  माफ़ करो। बोला की बे ज़ुबान  सताया है ,अगर अनजान हरकत तुझसे हुई ,अल्लाह माफ़ करेगा। मैं पास जा बैठा और तीर निकालने में शरीक हुआ। बड़ी दिक़्क़त से तीर को निकाला ,और ज़ख्म पर मरहम भर कर छोड़ दिया।  फिर हाथ  धो धा कर उस पीर मर्द ने कुछ हाज़री जो उस वक़्त मौजूद थी , मुझे खिलाई। मैंने खा पी कर एक चार पायी पर लम्बी तानी।

सुस्ती के सबब खूब पेट भर कर सोया। उस नींद में आवाज़ व ज़ारी की कान में आयी। आँखे मल कर जो देखता हु तो उस   मकान में न वह बूढ़ा है न कोई और है। अकेला मैं पलंग पर लेटा हु। और वह दालान खाली पड़ा है। चारो तरफ भयानक होकर देखने लगा। एक कोने में पर्दा पड़ा नज़र आया ,वहा जाकर उसे उठाया। देखा तो एक तख़्त  बिछा है , और इस पर एक परीजाद औरत ,बरस चौदा एक की माहताब की सी सूरत और ज़ुल्फ़े दोनों तरफ  बिखरे हुए ,हँसता चेहरा ,फिरंगी लिबास पहने हुए ,अजब अदा से देखती है ,और बैठी है ,और वह बुज़ुर्ग अपना सर  उसके पाव पर धरे बे इख़्तियार रो रहा है ,और होश हवास खो रहा है। मैं उस पीर मर्द का यह अहवाल और   नाज़नीन का हुस्न   व जमाल देख कर मुरझा गया ,और मुर्दे  की तरह बेजान होकर गिर पड़ा। वह मर्द बुज़ुर्ग यह मेरा   हाल देख कर ,शीशा गुलाब का ले आया और मुझ पर छिड़कने लगा। जब मैं जीता उठ कर ,उस माशूक़  के मुक़ाबिल जाकर सलाम किया। उसने हरगिज़ न हाथ उठाया  होंठ हिलाया। मैंने कहा : ए गुल बदन ! इतना गुरूर  करना और जवाब सलाम का न देना ,किस मज़हब में दुरुस्त है ?     

वास्ते उस खुदा के जिसने तुझे बनाया है ,कुछ तो मुंह से बोल। हम भी अचानक यहाँ आ निकलते है ,मेहमान के खातिर ज़रूर है  . मैंने बेहतरीन बाते बनाये,लेकिन कुछ काम न आयीं। वह चुपकी बुत की तरह बैठी सुना की। तब मैंने  भी आगे बढ़ कर ,हाथ पाव पर चलाया। जब पाओं को छेड़ा तो सख्त मालूम हुआ। आखिर यह दरयाफ्त किया की  पत्थर से उस लाल को तराशा है ,और आज़र ने इस बुत को बनाया है। तब उस पीर मर्द बुतपरस्त से पूछा की मैंने तेरे  हिरण की टांग में खपरा मारा ,तूने इस इश्क़ के नावक से मेरा कलेजा छेद कर वार पार किया। तेरी दुआ क़ुबूल हु  .अब इसकी कैफियत तफ्सील बयां कर यह तिलिस्म क्यू बनाया है, और तूने बस्ती को छोड़ कर ,जंगल पहाड़  क्यू बसाया है ? तुझ पर जो कुछ बीता है ,मुझसे कह।

जब उसका बहुत पीछा लिया ,तो उसने जवाब दिया की इस बात ने मुझे तो खराब किया है। क्या तू भी सुन कर हलाक होना चाहता है  ?मैंने कहा : लो अब बहुत मकर चकर किया ,मतलब की बात कहो नहीं तो मार डालूंगा। मुझे निहायत  दरपे देखा और बोला : ए जवान ! हक़ तआला हर इंसान को इश्क़ की आंच से महफूज़ रखे। देख तो इस इश्क़  ने क्या किया आफ़ते बरपा  की है ! इश्क़ ही के मारे औरत ,खाविंद के साथ सती होती है। और अपनी जान  खोती है। और फरहाद व मजनू का क़िस्सा सबको मालूम है। तो उसके सुनने से क्या फल पायेगा ? नाहक़ घर बार  दुनिया ,दौलत दुनिया छोड़ छाड़ कर निकल जायेगा।  मैंने जवाब दिया : बस अपनी दोस्ती तह कर रखो  ,इस वक़्त  मुझे अपना दुश्मन समझो। अगर जान अज़ीज़ है ,तो साफ़ कहो। लाचार हो कर आंसू भर आया और कहने लगा कि मुझ खाना खराब की यह हक़ीक़त है कि बन्दे का नाम नोमान सैय्याह है। मैं बड़ा सौदागर था। इस सिन  में तिजारत के सबब हफ्ता की सैर की और सब बादशाहो की ख़िदमत में रसाई हुई।

         एक बार यह ख्याल जी में आया की चारो दांग मुल्क तो फिरा ,लेकिन जज़ीरा फरंग की तरफ न गया। और वहा के बादशाहो को  और सिपाह को न देखा ,और रस्म व राह वहा की कुछ न दरयाफ्त हुई। एक दफा वहा  भी चलना चाहिए  . रफ़ीक़ो को शफ़ीक़ो से सलाह लेकर इरादा  बांध लिया। और तोहफा ,हिदाया जहा तहा का ,जो वहा के लायक  था ,लिया। और एक काफला सौदागरो का एकट्ठा कर कर ,जहाज़ पर सवार हो कर ,रवाना हुआ। हुआ जो मुआफ़िक  पायी ,कई महीनो में उस मुल्क में जा दाखिल हुआ। शहर में डेरा किया। अजब शहर देखा की कोई शहर उस शहर की  खूबी को नहीं पहुँचता है। हर एक बाजार कूचे में पोख्ता सड़के बनी हुई ,और छिड़काव किया हुआ।  सफाई ऐसी की एक तिनका कही पड़ा नज़र न आया ,कूड़े का तो क्या ज़िक्र है। और इमारते रंग बा रंग की। .और रात  को रास्तो में दो रस्ता क़दम बा क़दम रौशनी। और शहर के बाहर बगात कि जिनमे अजाइब गुल बुनते और मेवे  नज़र आये ,की शायद सिवाए बहिश्त के कही और न होंगे। जो वहा की तारीफ करू। सो बजा है।

गरज़ सौदागरों का आने का चर्चा हुआ। एक ख्वाजा सिरा अदब ,सवार होकर और कई खिदमत गार साथ लेकर क़ाफ़ले में आया  ,और बेवपारियो से पूछा की तुम्हारा सरदार कौन सा है ? सभी ने मेरी तरफ इशारा किया। वह महिलली  मेरे मकान में आया। मैं ताज़ीम बजा लाया। एक दूसरे से सलाम दुआ हुई। उसको सूज़नी पर बिठाया ,तकिया लगाया। उसके बाद मैंने पूछा की साहब की तशरीफ़ लाने का क्या बाअस है ? फरमाईये। जवाब दिया कि शहज़ादी  ने सुना है की सौदागर आये है ,और बहुत जींस लाये है ,लिहाज़ा मुझको हुक्म किया कि जाकर उनको हुज़ूर  में ले आओ। बस तुम जो कुछ असबाब लायक बादशाहो की सरकार के हो, साथ लेकर चलो। और सआदत आस्ताना  बोसी की हासिल।

मैंने जवाब दिया की आज तो कुछ काम की वजह से क़ासिर हु। कल जान व माल से हाज़िर हु। जो कुछ इस अजीज़ के पास मौजूद है ,नज़र गुज़ारूंगा ( सामने रखूँगा ) जो पसंद आये माल सरकार का है। यह वादा कर कर ,और इत्र पान दे कर ख्वाजा  को रुखसत किया। और सब सौदागरों को अपने पास बुला कर ,जो जो तोहफा जिसके पास था ,ले ले कर जमा किया। और जो मेरे घर में था ,वो भी लिया। और सुबह के वक़्त दरवाज़े पर बादशाही महल  के हाज़िर हुआ। बारी दारो ने मेरी खबर अर्ज़ की। हुक्म हुआ कि हुज़ूर में लाओ। वही ख्वाजा सिरा निकला  और मेरा हाथ हाथ में लेकर दोस्ती की राह से बाते करता हुआ ले चला। पहले ख्वास पुरे से हो कर ,एक मकान आली शान में ले गया। अये अज़ीज़ ! तू बावर न करेगा ! यह आलिम नज़र आया गोया पर काट कर परियो को छोड़  दिया है। जिस तरफ देखता था ,निगाह टिक जाती थी। पाओं ज़मीन से उखड़े जाते थे। बा ज़ोर अपने आपको  संभालता हुआ रु बा रु पंहुचा। जैसे ही बादशाह ज़ादी पर नज़र पड़ी ,गश की नौबत हुई और पाओं में शल  हो गया।

हर सूरत सलाम किया। दोनों तरफ से ख़ामोशी ,सफ बा सफ ,नाज़नीन परी चेहरा आस पास  खड़ी थीं। मैं जो  कुछ  क़िस्म जवाहर और पारचा पोशाकी और तोहफा अपने साथ ले गया था। जब कई कश्तिया हुज़ूर में चुनी गयी ,जो पसंद की थीं ,खुश होकर खानसमा के हवाले हुई। और फ़रमाया की क़ीमत इसकी मुजीब फरो के कल दी जाएगी।  मैं तस्लीमात बजा लाया। और दिल में खुश हुआ की इस बहाने से कल भी आना होगा। जब रुखसत हो कर बाहर आया  ,तो सौदाई की तरह कहता कुछ था और मुंह से निकलता  कुछ था। इसी तरह सिरा ( अपने रूम ) में आया ,लेकिन हवास बजा न थे।  सब आशना दोस्त पूछने लगे की तुम्हारी क्या हालत है ? मैंने कहा : इतनी आमद व रफ़्त गर्मी दिमाग में  चढ़ गयी है। 



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